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कंकाल-अध्याय -६४

वह दरिद्रता और अभाव के गार्हस्थ्य जीवन की कटुता में दुलारा गया था। उसकी माँ चाहती थी कि वह अपने हाथ से दो रोटी कमा लेने के योग्य बन जाए, इसलिए वह बार-बार झिड़की सुनता। जब क्रोध से उसके आँसू निकलते और जब उन्हें अधरों से पोंछ लेना चाहिए था, तब भी वे रूखे कपोलों पर आप ही आप सूखकर एक मिलन-चिह्न छोड़ जाते थे।

कभी वह पढ़ने के लिए पिटता, कभी काम सीखने के लिए डाँटा जाता; यही थी उसकी दिनचर्या। फिर वह चिड़चिड़े स्वभाव का क्यों न हो जाता। वह क्रोधी था, तो भी उसके मन में स्नेह था। प्रेम था और था नैसर्गिक आनन्द-शैशव का उल्लास; रो लेने पर भी जी खोलकर हँस लेता; पढ़ने पर खेलने लगता। बस्ता खुलने के लिए सदैव प्रस्तुत रहता, पुस्तकें गिरने के लिए निकल पड़ती थीं। टोपी असावधानी से टढ़ी और कुरते का बटन खुला हुआ। आँखों में सूखते हुए आँसू और अधर पर मुस्कराहट।

उसकी गाड़ी चल रही थी। वह एक पहिया ढुलका रहा था। उसे चलाकर उल्लास से बोल उठा, 'हटो सामने से, गाड़ी जाती है।'

सामने से आती हुई पगली ने उस गाड़ी को उठा लिया। बालक के निर्दोष विनोद में बाधा पड़ी। वह सहमकर उस पगली की ओर देखने लगा। निष्फल क्रोध का परिणाम होता है रो देना। बालक रोने लगा। म्युनिसिपल स्कूल भी पास न था, जिसकी 'अ' कक्षा में वह पढ़ता था। कोई सहायक न पहुँच सका। पगली ने उसे रोते देखा। वह जैसे अपनी भूल समझ गयी। बोली, 'आँ' अमको न खेलाओगे; आँ-आँ मैं भी रोने लगूँगी, आँ-आँ आँ!' बालक हँस पड़ा, वह उसे गोद में झिंझोड़ने लगी। अबकी वह फिर घबराया। उसने रोने के लिए मुँह बनाया ही था कि पगली ने उसे गोद से उतार दिया और बड़बड़ाने लगी, 'राम, कृष्ण और बुद्ध सभी तो पृथ्वी पर लोटते थे। मैं खोजती थी आकाश में! ईसा की जननी से पूछती थी। इतना खोजने की क्या आवश्यकता कहीं तो नहीं, वह देखो कितनी चिनगारी निकल रही है। सब एक-एक प्राणी हैं, चमकना, फिर लोप हो जाना! किसी के बुझने में रोना है और किसी के जल उठने में हँसी। हा-हा-हा-हा।...'

तब तो बालक और भी डरा। वह त्रस्त था, उसे भी शंका होने लगी कि यह पगली तो नहीं है। वह हतबुद्धि-सा इधर-उधर देख रहा था। दौड़कर भाग जाने का साहस भी न था। अभी तक उसकी गाड़ी पगली लिए थी। दूर से स्त्री और पुरुष, यह घटना कुतूहल से देखते चले आ रहे थे। उन्होंने बालक को विपत्ति में पड़ा देखकर सहायता करने की इच्छा की। पास आकर पुरुष ने कहा, 'क्यों जी, तुम पागल तो नहीं हो। क्यों इस लड़के को तंग कर रही हो

'तंग कर रही हूँ। पूजा कर रही हूँ पूजा। राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा की सरलता की पूजा कर रही हूँ। इन्हें रुला देने से इनकी एक कसरत हो जाती है, फिर हँसा दूँगी। और तुम तो कभी भी जी खोलकर न हँस सकोगे, न रो सकोगे।'

बालक को कुछ साहस हो चला था। वह अपना सहायक देखकर बोल उठा, 'मेरी गाड़ी छीन ली है।' पगली ने पुचकारते हुए कहा, 'चित्र लोगे देखो, पश्चिम में संध्या कैसा अपना रंगीन चित्र फैलाए बैठी है।' पगली के साथ ही और उन तीनों ने भी देखा। पुरुष ने कहा, 'मुझसे बात करो, उस बालक को जाने दो।' पगली हँस पड़ी। वह बोली, 'तुमसे बात! बातों का कहाँ अवकाश! चालबाजियों से कहाँ अवसर! ऊँह, देखो उधर काले पत्थरों की एक पहाड़ी; उसके बाद एक लहराती हुई झील, फिर नांरगी रंग की एक जलती हुई पहाड़ी-जैसे उसकी ज्वाला ठंडी नहीं होती। फिर एक सुनहला मैदान!-वहाँ चलोगे

उधर देखने में सब विवाद बन्द हो गया, बालक भी चुप था। उस स्त्री और पुरुष ने भी निसर्ग-स्मरणीय दृश्य देखा। पगली संकेत करने वाला हाथ फैलाये अभी तक वैसे ही खड़ी थी। पुरुष ने देखा, उसका सुन्दर शरीर कृश हो गया था और बड़ी-बड़ी आँखें क्षुधा से व्याकुल थीं। जाने कब से अनाहार का कष्ट उठा रही थी। साथ वाली स्त्री से पुरुष ने कहा, 'किशोरी! इसे कुछ खिलाओ!' किशोरी उस बालक को देख रही थी, अब श्रीचन्द्र का ध्यान भी उसकी ओर गया। वह बालक उस पगली की उन्मत्त क्रीड़ा से रक्षा पाने की आशा में विश्वासपूर्ण नेत्रों से इन्हीं दोनों की ओर देख रहा था। श्रीचन्द्र ने उसे गोद में उठाते हुए कहा, 'चलो, तुम्हें गाड़ी दिला दूँ।'

किशोरी ने पगली से कहा, 'तुम्हें भूख लगी है, कुछ खाओगी?'

पगली और बालक दोनों ही उनके प्रस्तावों पर सहमत थे; पर बोले नहीं। इतने में श्रीचन्द्र का पण्डा आ गया और बोला, 'बाबूजी, आप कब से यहाँ फँसे हैं। यह तो चाची का पालित पुत्र है, क्यो रे मोहन! तू अभी से स्कूल जाने लगा है चल, तुझे घर पहुँचा दूँ?' वह श्रीचन्द्र की गोद से उसे लेने लगा; परन्तु मोहन वहाँ से उतरना नहीं चाहता था।

'मैं तुझको कब से खोज रही हूँ, तू बड़ा दुष्ट है रे!' कहती हुई चाची ने आकर उसे अपनी गोद में ले लिया। सहसा पगली हँसती हुई भाग चली। वह कह रही थी, 'वह देखो, प्रकाश भागा जाता है अन्धकार...!' कहकर पगली वेग से दौड़ने लगी थी। कंकड़, पत्थर और गड्ढों का ध्यान नहीं। अभी थोड़ी दूर वह न जा सकी थी कि उसे ठोकर लगी, वह गिर पड़ी। गहरी चोट लगने से वह मूर्च्छित-सी हो गयी।

यह दल उसके पास पहुँचा। श्रीचन्द्र ने पण्डाजी से कहा, 'इसकी सेवा होनी चाहिए, बेचारी दुखिया है।' पण्डाजी अपने धनी यजमान की प्रत्येक आज्ञा पूरी करने के लिए प्रस्तुत थे। उन्होने कहा, 'चाची का घर तो पास ही है, वहाँ उसे उठा ले चलता हूँ। चाची ने मोहन और श्रीचन्द्र के व्यवहार को देखा था, उसे अनेक आशा थी। उसने कहा, 'हाँ, हाँ, बेचारी को बड़ी चोट लगी है, उतर तो मोहन!' मोहन को उतारकर वह पण्डाजी की सहायता से पगली को अपने पास के घर में ले चली। मोहन रोने लगा। श्रीचन्द्र ने कहा, 'ओहो, तुम बड़े रोने हो। जी गाड़ी लेने न चलोगे?'

'चलूँगा।' चुप होते हुए मोहन ने कहा।

मोहन के मन में पगली से दूर रहने की बड़ी इच्छा थी। श्रीचन्द्र ने पण्डा को कुछ रुपये दिये कि पगली का कुछ उचित प्रबन्ध कर दिया जाय और बोले, 'चाची, मैं मोहन को गाड़ी दिलाने के लिए बाजार लिवाता जाऊँ?'

चाची ने कहा, 'हाँ-हाँ, आपका ही लड़का है।'

'मैं फिर आता हूँ, आपके पड़ोस में तो ठहरा हूँ।' कहकर श्रीचन्द्र, किशोरी और मोहन बाजार की ओर चले।

ऊपर लिखी हुई घटना को महीनों बीत चुके थे। अभी तक श्रीचन्द्र और किशोरी अयोध्या में ही रहे। नागेश्वर में मन्दिर के पास ही डेरा था। सरयू की तीव्र धारा सामने बह रही थी। स्वर्गद्वार के तट पर स्नान करके श्रीचन्द्र व किशोरी बैठे थे। पास ही एक बैरागी रामायण की कथा कह रहा था-

'राम एक तापस-तिय तारी।

नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥'

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